ऐंकर : वाकई बहुत खुशी हो रही है कि आपके संदेश सुनकर, आपकी बातें सुनकर। तो जिस तरीके से अगर हम बात करें आज के युग की, आज के जमाने की — जिस तरीके की अशांति दुनिया भर में फैली हुई है और दुनिया भर में आप घूमते हैं। यू.के. की बात करूं मैं, यू.एस. की बात करूं या यूरोपियन कंट्रीज की बात करूं, वहां की पार्लियामेंट्स ने आपको बुला-बुलाकर सम्मानित किया है तो क्या उन देशों पर, उन लोगों पर भी कोई आपकी बात का, आपके संदेश का असर पड़ता है ?
प्रेम रावत जी : पड़ता जरूर है! क्योंकि जब लोग सुनने लगते हैं शांति की बात, कम से कम कोई तो शांति की बात कर रहा है। और ऐसी शांति नहीं, जो धर्म से संबंधित हो। ऐसी शांति, जो निज़ी शांति हो, जो उसके जीवन के अंदर हो, चाहे वह किसी भी धर्म का हो।
अब कई लोग हैं, जो धर्म को नहीं मानते हैं। कई लोग हैं, जो भगवान को भी नहीं मानते हैं। पर इसका मतलब यह नहीं है कि वो शांति का अनुभव नहीं कर सकते।
लोग समझते हैं कि ‘‘नहीं, ऐसा करो, ऐसा करो, ऐसा करो, तब जाकर के यह सबकुछ होगा।’’
नहीं! शांति तो सबके अंदर है, परंतु उसको हमने मौका नहीं दिया है उभरने का। उसको मौका नहीं दिया है, उसको खोजने का, उसको जानने का और यह बात बहुत जरूरी है। जब भी — अब आज आप देखिए! शांति के बारे में लोग कहीं भी मैं जाता हूं, प्रभावित होते हैं। वो संदेश सुनते हैं कि — क्योंकि सारे दिन वो सुन रहे हैं, ‘‘ये हो रहा है, वो हो रहा है, वहां लड़ाई हो रही है, ऐसा हो रहा है, ऐसा हो रहा है, ऐसा हो रहा है।’’
तो सोचते हैं, ऐसा क्यों हो रहा है ? जैसे आपने अभी कहा कि ऐसा क्यों हो रहा है ? फिर जब शांति का संदेश सुनते हैं तो कहीं न कहीं गुंज़ाइश है। क्योंकि पहले उनके दिमाग में यह भरा हुआ है कि शांति हो नहीं सकती।
मैं लोगों से कहता हूं कि ये जो लड़ाइयां हैं, जो कुछ भी आज इस विश्व का हाल है, वो किसने बनाया ?
वो मनुष्य ने बनाया। अगर मनुष्य ने बनाया और आप इस बात को मानते हैं कि मनुष्य ने बनाया तो यह तो बहुत अच्छी खुशखबरी है। क्योंकि इसका मतलब है कि वो बदली भी जा सकती है। अब प्रकृति को बदलना बड़ा मुश्किल है। अगर भगवान ने बनाया तो बड़ा मुश्किल है। परंतु अगर मनुष्य ने बनाया है तो वो बदला जा सकता है।
ऐंकर : बिल्कुल, बिल्कुल, बिल्कुल! आंतरिक शांति, जैसे आपने बात कही कि ‘अंदर की शांति’। यह हम बात कर रहे थे कि देशों में जिस तरीके का टाइम चल रहा है आजकल, आंतरिक शांति क्या है ? उसके बारे में थोड़ा-सा हमारे दर्शकों को समझाइए।
प्रेम रावत जी : मैं इस सवाल को दो हिस्सों में बांटना चाहता हूं। एक तो यह कि आंतरिक शांति क्या नहीं है और क्या है ?
तो सबसे पहले लोग समझते हैं कि अगर उनकी समस्याओं का हल हो जाए तो उनको आंतरिक शांति मिल जाएगी। तो अगर कोई भूखा है तो उसके लिए यह हो जाता है कि अगर मेरे को खाना मिल जाए तो मैं शांत हो जाऊंगा। अगर पड़ोसी का कुत्ता हर — सारी रात भौंक रहा है तो यह होता है कि अगर यह कुत्ता शांत हो जाए तो मैं शांत हो जाऊंगा। तो अंदर की शांति यह नहीं है कि हमारी समस्याओं का हल हो जाए तो हम शांत हो जाएंगे क्योंकि हमारी समस्याएं बदलती रहेंगी। हर एक चीज के साथ — जब सेलफोन नहीं थे तो उनकी बैटरी की कंडीशन क्या है, किसको परवाह थी ? पर अब हो गये हैं तो कितनी बैटरी बची है, अब हमारे लिए समस्या बन गयी है। तो एक तो यह है कि क्या नहीं है और लोग समझते हैं कि ये लड़ाइयां बंद हो जाएं तो शांति हो जाएगी। यह भी शांति नहीं है।
तो अब शांति क्या है ?
शांति है मनुष्य के अंदर। शांति है वह चीज, जो कि मनुष्य अपने आपको पहचाने। अपने आपको पहचाने कि मेरी ताकत क्या है और मेरी कमजोरियां क्या हैं, वहां से शुरू करे। वह शांति नहीं है, पर वहां से शुरू करे कि मेरे अंदर क्या ताकत है ? तो आपके अंदर आनंद को अनुभव करने की भी ताकत है और आपके अंदर परेशान होने की भी ताकत है। आप में गुस्सा होने की भी ताकत है और आप में प्रेम करने की भी ताकत है। और ये दो ताकत जो आपकी हैं, इससे आप कभी वंचित नहीं हैं। मतलब, आप कहीं भी चले जाएं, ये दोनों चीजें आपके साथ-साथ चलती हैं।
ऐंकर : जी, जी, जी, जी!
प्रेम रावत जी : आप क्रोधित भी हो सकते हैं और आप आनंद में भी हो सकते हैं। आप प्यार भी कर सकते हैं, आप नफरत भी कर सकते हैं। दोनों चीजें आपके साथ चलती हैं।
अब बात यह है कि हम किस चीज को प्रेरणा देते हैं ?
संसार में जब हम होते हैं, ट्रैफिक में फंस जाते हैं या रेलगाड़ी छूट गयी या हवाई जहाज छूट गया तो प्रेरणा उन चीजों को मिलती है, जिससे कि गुस्सा आए। उस समय आदमी यह नहीं सोचता है कि नहीं, कम से कम मैं जीवित तो हूं। क्योंकि उसकी दुनिया में, मनुष्य की दुनिया में जीवित होने का कोई मोल नहीं है कि ‘‘मैं आज जीवित हूं!’’ यह नहीं कहता है मनुष्य। किसी के साथ कोई समस्या हुई तो यह नहीं कहता है मनुष्य कि ‘‘कम से कम मैं जीवित तो हूं!’’
वह कहता है, ‘‘नहीं, ये हो गया! ये हो गया! ये हो गया! ये हो गया! और जब प्राण निकलने लगते हैं मनुष्य के, तब उसको ख्याल आता है — अरे बाप रे बाप! कहां मैं फंसा हुआ था ?
सबसे बड़ी चीज तो यह है कि मैं जीवित रहूं, दो मिनट के लिए और रहूं, तीन मिनट के लिए और रहूं!
तो शांति वह है, जब मनुष्य के अंदर, वो जो तूफान आते रहते हैं, उनसे निकलकर के, वह उस चीज का अनुभव करे, जो उसके अंदर है। हम उस ताकत को, उस शक्ति को, जिसने सारे विश्व को चला रखा है इस समय, वह हमारे अंदर भी है और उसका अनुभव करना, साक्षात् अनुभव करना — मन से नहीं, ख्यालों से नहीं, साक्षात् अनुभव करना — उससे फिर शांति उभरती है मनुष्य को । क्योंकि वह उस चीज का अनुभव कर रहा है, जिसका कि वह एक हिस्सा है और जिसकी कोई हद नहीं है। इन्फीनिट! जिसका कभी नाश नहीं होगा, वह भी उसके अंदर है। और जबतक वह उसका अनुभव नहीं कर लेगा, वह अपने आपको पहचान नहीं पाएगा पूरी तरीके से कि वह है क्या ? और जबतक पहचानेगा नहीं, तब तक जानेगा नहीं, तब तक पहचानेगा नहीं।
ऐंकर : 4 साल की उम्र में जब आप ये सब बोलते थे तो लोग सुनने उस समय भी आते थे क्या आपको ?
प्रेम रावत जी : बिल्कुल! बिल्कुल आते थे।
ऐंकर : थोड़ा-सा अपने बारे में बताइए। पृष्ठभूमि के बारे में बताइए थोड़ा-सा!
प्रेम रावत जी : उस समय मेरे को तो नहीं मालूम था, पर जैसे हमारे माताजी ने, पिताजी ने बताया कि हमारा जन्म हुआ कनखल, हरिद्वार में।
ऐंकर : जी, जी!
प्रेम रावत जी : तो वहां से फिर हम जब — चार भाई थे।
ऐंकर : जी, जी, जी!
प्रेम रावत जी : तो जब हमारे पिताजी ने सोचा कि भाई, अब स्कूल जाएंगे तो अच्छे स्कूल में भेजना चाहिए।
ऐंकर : जी!
प्रेम रावत जी : तो वह फिर देहरादून ले गए और देहरादून में अच्छे-अच्छे स्कूल थे। तो वहां हम बड़े हुए एक किस्म से और वहां स्कूल गए। और हमारे पिताजी यह चाहते थे, क्योंकि हमसे पहले वह कर रहे थे। वह इस शांति का जो संदेश है, लोगों तक पहुंचा रहे थे। तो उनकी यह इच्छा थी कि जब मैं बड़ा हो जाऊं तो मैं अंग्रेजी में लोगों को संबोधित करूं, ताकि यह — वह जानते थे कि उनके पास वह मौका नहीं रह गया कि वह सारे संसार में जाएं, वह अंग्रेजी सीखें।
ऐंकर : जी, जी, जी! बहुत बड़ी बात है।
प्रेम रावत जी : तो उन्होंने कहा कि ‘‘यह करेगा।’’
ऐंकर : जी!
प्रेम रावत जी : और मैं लोगों के सामने जाता था, लोगों को सुनाता था कि भाई! तुम अपना समय काहे के लिए बेकार कर रहे हो! अपने आपको जानो! अपने आपको समझो!
ऐंकर : जी, जी, जी, जी!
प्रेम रावत जी : और जिस चीज की तुमको खोज है, वह तुम्हारे अंदर है। तो उस समय एक पत्रिका निकलती थी और उसमें जो मैंने लोगों को संबोधित किया, तो वो उसमें छपा पहली बार।
ऐंकर : अच्छा!
प्रेम रावत जी : बड़ा अच्छा लोगों को लगा कि भाई, छोटा-सा बच्चा है, यह बोल रहा है। पर उसके बाद जब मैं तकरीबन 9 साल का था, उससे थोड़ा-सा ही छोटा, तब मेरे पिताजी गुजर गए, तब मेरे को ये सारी जिम्मेवारी मिली कि मैं इस संदेश को लोगों तक पहुंचाऊं। और लगभग मैं जब 13 साल का था तो पहला मेरे को निमंत्रण आया विदेश जाने का।
ऐंकर : 13 साल की उम्र में ?
प्रेम रावत जी : हां, 13 साल की उम्र में। और उस समय मेरी स्कूल की छुट्टी थी। तो उस समय चीजें बड़ी अजीब किस्म की थीं। क्योंकि एक तो मैं स्कूल जा रहा था। तो जब स्कूल की छुट्टी होती थी तो मैं बाहर जाकर लोगों को संबोधित करता था और फिर स्कूल में आना है। स्कूल में तो विद्यार्थी बनकर ही रहना है और कुछ नहीं होता है।
ऐंकर : बिल्कुल, बिल्कुल!
प्रेम रावत जी : तो दो रोल हो गए। एक तो विद्यार्थी बनो और एक लोगों को भी संबोधित कर रहे हो! तो मैं — सारे हिन्दुस्तान में टूर होता था, नॉर्दन पार्ट में mainly। पर जहां-जहां मेरे को निमंत्रण आया, मैं जाता था। तो फिर मैं विदेश गया छुट्टियों में कि देखें कि वहां के लोग इस संदेश को कैसे सुनने के लिए आते हैं। क्या इंटरेस्ट भी है उनका या नहीं ? क्योंकि हिन्दुस्तान तो ठीक है, उस समय इतना अमीर नहीं था, जितना — और इतनी प्रगति नहीं की थी, जितनी अब हो गई है। और विदेश में तो ये सबकुछ लोगों के पास सारे साधन उपलब्ध थे। तो क्या वो शांति के बारे में सुनना भी चाहेंगे कि नहीं ?
तो जब मैं गया तो वह एक ऐसा समय था, और पर्टिक्यूलरली जब मैं अमेरिका में गया। तो उस समय सारे एंटीवार डेमोस्ट्रेशन्स हो रहे थे और यहां एक “टीनएजर लड़का” शांति की बात कर रहा है। तो लोगों ने बहुत सुना और बहुत तादाद में लोग आए और उसका प्रभाव बहुत हुआ लोगों में। और उसके बाद यह था कि भाई! सारे संसार में ले जाएंगे, तो मैं जापान भी गया, ऑस्ट्रेलिया भी गया, उसके बाद तो फिर सारे देशों में यह संदेश पहुंच गया।
ऐंकर : चार साल की उम्र — खेलने-कूदने की उम्र होती है या स्कूल में पढ़ने की उम्र होती है। तो कहां से ये ख्याल, कहां से आते थे आपके दिमाग में कि ये मुझे बोलना है, लोगों को ये असर होगा या पिताजी से सुनते थे या जो घर का एक परिवेश था, जैसे पिताजी आपके बता रहे हैं — वो लोगों को संदेश देते थे! कहां से आते थे ये ख्यालात ?
प्रेम रावत जी : देखिए! एक बात अगर समझ में आ गई और उस चीज का अनुभव कर लिया आपने अंदर तो उसके बाद तोते की तरह रटने की जरूरत नहीं है। उसके बाद तो फिर दिल से कह सकते हैं और वो दिल से बात उभरकर आएगी, क्योंकि बात समझ में आ गई। और यही बात मैं आज लोगों के जीवन में चाहता हूं कि लोगों की समझ में आ जाए यह बात। एक बार आ गई तो उसके बाद उनको तोता बनने की जरूरत नहीं है।
ऐंकर : जरूरत नहीं है।
प्रेम रावत जी : क्योंकि आजकल तो तोता बन गए हैं लोग। ये फलां-फलां किताब में लिखा है, ये फलां-फलां किताब में लिखा है। वहां से पढ़ रहे हैं, ये कर रहे हैं। भाई! तुम्हारा अनुभव क्या है ? अपना अनुभव होना चाहिए। तो मैंने अपने जीवन में अपना अनुभव ही आगे रखने की कोशिश की है। यह नहीं है कि मैं बहुत विद्वान हूं। मेरे को फेम नहीं चाहिए।
ऐंकर : बिल्कुल, बिल्कुल!
प्रेम रावत जी : क्योंकि वो — मैंने उसका अनुभव किया हुआ है। वो क्या होती है, मेरे को मालूम है और मेरे को नहीं चाहिए। इसीलिए आप मेरे पोस्टर नहीं देखेंगे।
ऐंकर : बिल्कुल, बिल्कुल! कहीं नजर नहीं आते हैं।
प्रेम रावत जी : क्योंकि हम गंदगी नहीं फैलाना चाहते हैं। ये देश है, इसमें हमारा जन्म हुआ और आज — देखिए! लोग कूड़ा फेंकने में कोई संकोच नहीं करते हैं।
ऐंकर : बिल्कुल!
प्रेम रावत जी : और एक समय था — हमारे पोस्टर लगते थे। मैंने कहा कि मेरे को नहीं चाहिए। मेरे को सुनने वाले वो चाहिए, जो सचमुच में अपने हृदय से मेरी बात सुनना चाहते हैं।
ऐंकर : बिल्कुल!
प्रेम रावत जी : आज भी वही बात है। तो आपको जगह-जगह एडवर्टाइजमेंट नहीं मिलेंगे। हम उन्हीं लोगों को संबोधित करना चाहते हैं, जो सुनना चाहते हैं।
ऐंकर : यही चीजें आपको औरों से अलग बनाती हैं। आपकी जो मुझे कैटेगरी नजर आती है, जिस तरीके से मैंने आपको सुना — यूट्यूब पर भी सुना और साक्षात् सुनकर आया मैं, तो औरों से अलग हैं आप। तो कैसे आप अपने आपको अलग मानते हैं उन सबसे ?
प्रेम रावत जी : देखिए! एक तो मैं अपने आपको मनुष्य मानता हूं।
ऐंकर : जी!
प्रेम रावत जी : और मनुष्य होने के नाते मुझे इसमें गर्व है। और लोगों को जो देखता हूं, वो समझते हैं कि मनुष्य सबसे नीचे है। मैं समझता हूं कि मनुष्य सबसे ऊपर है।
ऐंकर : बहुत अच्छे!
प्रेम रावत जी : तो यह बात अलग है। तो लोग कहते हैं कि ‘‘हमको पूजो’’!
हम कहते हैं, ‘‘नहीं, तुम अपने आपको पूजना शुरू करो! जो तुम्हारे अंदर है, उसको पूजना शुरू करो!’’ लोग कहते हैं, ‘‘हमको आशीर्वाद दीजिए!’’
मैंने कहा कि ‘‘जिसका आशीर्वाद तुम्हारे सिर पर है, तुम चाहते हो कि मैं उसका हाथ हटाकर के अपना हाथ रखूं ? मेरे में, तुम में कोई अंतर नहीं है। मेरे को भी दुःख होता है, तुमको भी दुःख होता है। इसीलिए मैं तुमसे बात कर सकता हूं। क्योंकि मेरा अनुभव है कि मनुष्य होने के नाते हम उस चीज का भी अनुभव कर सकते हैं, जो हमारे जीवन में शांति लाए और उस चीज का भी अनुभव कर सकते हैं, जो अशांति लाए।’’ तो कॉमन ग्राउंड है। कॉमन ग्राउंड मेरे को पसंद है। कॉमन ग्राउंड मेरे को पसंद है। और मैं अपने आपको पुजवाना नहीं चाहता हूं। मैं अपने आपको डिक्लेयर नहीं करना चाहता हूं कि मैं ये हूं, मैं वो हूं। क्योंकि ये — जब मैं छोटा था, लोगों ने चालू कर दिया कि ‘‘ये, ये है! ये भगवान है। ये, ये है, ये, वो है!’’
ऐंकर : अच्छा, अच्छा!
प्रेम रावत जी : …भगवान! अब स्कूल में जाओ! स्कूल में आप मास्टर से कहेंगे कि ‘‘मैं भगवान हूं! मेरे को गृहकार्य मत दो।’’
ऐंकर : बिल्कुल नहीं!
प्रेम रावत जी : मैं इम्तिहान नहीं दूंगा। मैं तो भगवान हूं, मेरे को वैसे ही पास कर दो।’’
नहीं! ये सब नहीं है। वहां तो फिर गृहकार्य भी करना है और अगर मास्टर कहता है, ‘‘सब लोग खड़े हो जाओ! अपना कान पकड़ो!’’ वो भी करना है। उस समय तो ये सब चलता था।
ऐंकर : जी, जी, जी!
प्रेम रावत जी : पूरी की पूरी क्लास पनिश हो रही है। तो ये सारी चीजें — मनुष्य यह जाने कि वह मनुष्य है। और मनुष्य बहुत सुंदर चीज है। अच्छी चीज है! खराब कर रही है अभी, परंतु इसको भी बदला जा सकता है।
ऐंकर : एक चीज और मैं जानना चाहूंगा कि जिस तरीके से मैंने, जैसे पिछला आपका ‘‘आरंभ’’ देखा था, उसमें जो भारी तादाद में लोग आए हुए थे। तो पॉलिटिशियन्स जो होते हैं, वो ऐसे लोगों को ग्रैब करने की कोशिश करते हैं कि ये हमारी साइड आ जाएं, ये हमारी साइड आ जाएं। क्या ऐसा कोई अनुभव रहा है कि पॉलिटिशियन्स आपको अपनी तरफ खींचने की कोशिश करते हैं कई बार ?
प्रेम रावत जी : होता है! होता है, परंतु जब हम देखते हैं — अब देखिए! पॉलिटिशियन की बात अलग है। पॉलिटिशियन्स भी मनुष्य हैं। ऐंकर : जी, जी!
प्रेम रावत जी : और यह बात नहीं है कि उनके अंदर अच्छाई नहीं है। अच्छाई तो उनके अंदर भी है। अब ऐसे माहौल में हैं वो कि कॉम्पटीशन, कॉम्पटीशन, कॉम्पटीशन, कॉम्पटीशन, कॉम्पटीशन। उनको सही होना है, कुछ गलती नहीं कर सकते। मतलब, उनको इस तरीके से बना दिया है लोगों ने कि उनकी जिंदगी अपने आप ही डिफिकल्ट हो गयी है। जो लोग हैं, वो उनको देखते हैं कि कोई भी उनकी समस्या हो, वो उसको ठीक करेंगे।
कैसे ? कैसे ? मतलब, कहां से करेंगे ठीक ? तो अगर लोग यह अपेक्षा छोड़ना शुरू करें और एक-दूसरे की तरफ देखना शुरू करें कि भाई! हम अपनी समस्याओं को हल कर सकते हैं। तो समाज बंटेगा नहीं, इकट्ठा होगा।
ऐंकर : जुड़ेगा!
प्रेम रावत जी : तो मैं तो पॉलिटिक्स से दूर रहता हूं।
ऐंकर : जी, जी, जी!
प्रेम रावत जी : क्योंकि मैंने देखा हुआ है कि पॉलिटिक्स क्या है। अब अगर सभी एक ही नौका में बैठें हैं और वो नौका डूबने लगे तो रस्सी कौन फेंकेगा ?
ऐंकर : {हँसने लगते हैं}
प्रेम रावत जी : तो मेरा — मैं तो अपने आपको समझता हूं रस्सी फेंकने वाला।
ऐंकर : हूं, हूं, हूं!
प्रेम रावत जी : तो मेरे को तो उस नौका में नहीं बैठना है। कम से कम वो नौका अगर डूबने लगे तो रस्सी तो फेंक सकूंगा मैं।
ऐंकर : सही बात है! देश भर में घूमते हैं। परिवार भी आपका है, मैंने सुना है।
प्रेम रावत जी : बिल्कुल!
ऐंकर : कैसे तालमेल बिठाते हैं ? देश में, परिवार में कभी शिकायत नहीं रहती है कि हमें समय नहीं देते हैं आप ?
प्रेम रावत जी : हां! देखिए! जब बच्चे छोटे थे तो मैंने, जितना मैं उनको समय दे सकता था, उतना मैं समय देता था। जैसे ही मैं आता था — कई बार टूर से मैं आया तो उनको स्कूल लेने के लिए चला जाता था। उनको बड़ा अच्छा लगता था। कई बार मैं छुप जाता था पीछे — वो आते थे कार में तो मैं पीछे से निकलता था तो — आऽऽऽऽऽ! आ गए, आ गए! तो फिर मैंने सबको बैठाकर के बताया कि भाई! मैं यह करते आ रहा हूं। तुमसे पहले भी मैं कर रहा था और जब तुम बड़े हो जाओगे, तब भी मैं यह करता रहूंगा।
ऐंकर : ठीक, ठीक, ठीक!
प्रेम रावत जी : तो मैं पहले ही माफी मांग लेता हूं कि जितना समय मेरे को बिताना चाहिए, मैं नहीं बिता पाऊंगा। फिर भी मैंने कोशिश की कि वो मेरे साथ आएं। और उनको हिन्दुस्तान भी मैं लाता था, उनको बहुत अच्छा लगता था। और अब जैसे वो बड़े हो गए हैं तो सब इसी काम में हाथ बंटाने के लिए तैयार हैं।
ऐंकर : अच्छा, अच्छा, अच्छा!
प्रेम रावत जी : और उनको बड़ा अच्छा लगता है।
ऐंकर : तो जैसे आपके पिताजी ने आपको चुना, तो क्या आप भी आगे चाहेंगे कि आपके बच्चे भी इसी तरीके से शांति का संदेश और आगे बढ़ाएं ?
प्रेम रावत जी : मैं तो चाहूंगा! मैं तो चाहूंगा, परंतु मैं यह भी चाहूंगा कि वो और लोगों को प्रेरित करें और लीडर न बनें। सभी, सभी लोग मिलकर के — यह शांति का जो पथ है, इस पर सभी को चलना है। यह लीडरपना ज्यादा नहीं चलेगा। क्योंकि इसमें यह हो जाना कि सबकी अपेक्षा यह हो जाती है कि तुम क्या कहोगे, क्या करोगे, ये है, वो है। यह नहीं चलेगा। ये सब मिलकर के होगा। क्योंकि सभी-सभी इसमें — अब जैसे मेरे को शांतिदूत की पदवी मिली तो मैं एक — इटली में रेडक्रॉस फंक्शन में गया। तो मैंने कहा कि भाई! तुम सभी पीस एम्बेसडर क्यों नहीं बनते हो ? शांतिदूत क्यों नहीं बनते हो ?
ऐंकर : क्यों नहीं बनते हो ? बहुत बढ़िया।
प्रेम रावत जी : हर एक मनुष्य को शांतिदूत बनना है — मेरे को ही नहीं। मैं शांतिदूत होने के हिसाब से आपको कह रहा हूं कि ‘‘आप सब बनो! मैं आपको डिक्लेयर कर रहा हूं!’’ क्योंकि तभी होगा। मिलकर होगा। बिछड़कर नहीं। अलग होकर नहीं होगा।
ऐंकर : धन्यवाद प्रेम रावत जी! बहुत-बहुत शुक्रिया आपका कि आपने हमारे दर्शकों को शांति का संदेश दिया, जो कि आप दुनिया भर में देते हैं। हमारे दर्शक — अगर मैं यह कहूं कि लकी हैं, खुशकिस्मत हैं, आपका संदेश सुन रहे हैं — तो आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! इतना ही कहना चाहता हूं।
प्रेम रावत जी : आपके दर्शकों को मेरा बहुत-बहुत नमस्कार!
ऐंकर : धन्यवाद! नमस्कार!